"महाभारत वन पर्व अध्याय 207 श्लोक 33-48" के अवतरणों में अंतर

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मैं स्‍वयं मांस कभी नहीं खाता। ऋतु काल प्राप्‍त होने पर ही पत्‍नी– समागम करता हूँ। द्विज प्रवर।  मैं दिन में सदा ही उपवास और रात में भोजन करता हूँ। शील से रहित पुरुष भी कभी शीलवान हो जाता है। प्राणियों की हिंसा में अनुरक्‍त मनुष्‍य भी फिर धर्मात्‍मा हो जाता है। राजाओं के व्‍यभिचार-दोष से धर्म अत्‍यन्‍त संकीर्ण हो जाता है और अधर्म बढ़ जाता है, इससे प्रजा में वर्ण संकरता आ जाती है। उस दशा में भयंकर आकृति वाले, बौने, कुबडे, मोटे मस्‍त वाले, नपुंसक, अंधे, बहरे और अधिक उंचे नेत्रों वाले मनुष्‍य उत्‍पन्न होते हैं। राजाओं के अधर्म परायण होने से प्रजा की सदा अव‍नति होती है। हमारे ये राजा जनक समस्‍त प्रजा को धर्म पूर्ण दृष्टि से ही देखते हैं।  
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मैं स्‍वयं मांस कभी नहीं खाता। ऋतु काल प्राप्‍त होने पर ही पत्‍नी-समागम करता हूँ। द्विजप्रवर! मैं दिन में सदा ही उपवास और रात में भोजन करता हूँ। शील से रहित पुरुष भी कभी शीलवान हो जाता है। प्राणियों की हिंसा में अनुरक्‍त मनुष्‍य भी फिर धर्मात्‍मा हो जाता है। राजाओं के व्‍यभिचार-दोष से धर्म अत्‍यन्‍त संकीर्ण हो जाता है और अधर्म बढ़ जाता है, इससे प्रजा में वर्ण संकरता आ जाती है। उस दशा में भयंकर आकृति वाले, बौने, कुबड़े, मोटे मस्‍तक वाले, नपुंसक, अंधे, बहरे और अधिक ऊँचे नेत्रों वाले मनुष्‍य उत्‍पन्न होते हैं। राजाओं के अधर्म परायण होने से प्रजा की सदा अव‍नति होती है। हमारे ये राजा [[जनक]] समस्‍त प्रजा को धर्मपूर्ण दृष्टि से ही देखते हैं।  
  
नरश्रेष्‍ठ।  राजा जनक सदा स्‍वर्ध में तत्‍पर रहने वाली सम्‍पूर्ण प्रजा पर अनुग्रह रखते हुए उसका पिता की भाँति सदा पालन करते हैं। जो लोग मेरी प्रशंसा करते हैं और जो निन्‍दा करते हैं, उन सबको अपने सद्व्‍यवहार से संतुष्‍ट रखता हूँ। जो राजा अपने धर्म का पालन करते हुए जीवन निर्वाह करते हैं, धर्म में संयुक्‍त रहते हैं, किसी दूसरे की कोई वस्‍तु अपने उपयोग में नहीं लाते तथा सदा अपनी इन्द्रियों पर संयम रखते हैं, वे ही उन्नतिशील होते हैं।
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नरश्रेष्‍ठ! राजा जनक सदा स्‍वधर्म में तत्‍पर रहने वाली सम्‍पूर्ण प्रजा पर अनुग्रह रखते हुए उसका पिता की भाँति सदा पालन करते हैं। जो लोग मेरी प्रशंसा करते हैं और जो निन्‍दा करते हैं, उन सबको अपने सद्‌व्यवहार से संतुष्‍ट रखता हूँ। जो राजा अपने धर्म का पालन करते हुए जीवन निर्वाह करते हैं, धर्म में संयुक्‍त रहते हैं, किसी दूसरे की कोई वस्‍तु अपने उपयोग में नहीं लाते तथा सदा अपनी इन्द्रियों पर संयम रखते हैं, वे ही उन्नतिशील होते हैं। अपनी शक्ति के अनुसार सदा दूसरों को अन्न देना, दूसरों के अपराध तथा शीत-उष्ण आदि द्वन्‍द्वों को सहन करना, सदा धर्म में दृढ़तापूर्वक लगे रहना तथा सम्‍पूर्ण प्राणियों में सभी पूजनीय पुरुषों का यथायोग्‍य पूजन करना- ये मनुष्‍यों के सद्गुण पुरुष में स्‍वार्थत्‍याग के बिना नहीं रह पाते हैं। झूठ बोलना छोड़ दे, बिना कहे ही दूसरों का प्रिय करे, काम, क्रोध तथा द्वेष से भी कभी धर्म का परित्‍याग न करे। प्रिय वस्‍तु की प्राप्ति होने पर हर्ष से फूल न उठे, अपने मन के विपरीत कोई बात हो जाये तो दु:ख न माने- चिन्तिन न हो, अर्थ संकट आ जाये तो भी मोह के वशीभूत हो घबराये नहीं और किसी भी अवस्‍था में अपना धर्म न छोड़े। यदि भूल से कभी निन्दित कर्म बन जाये, तो फिर दुबारा वैसा काम न करे।  
 
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अपनी शक्ति के अनुसार सदा दूसरों को अन्न देना, दूसरों के अपराध तथा शीत उष्‍ठ आदि द्वन्‍द्वों को सहन करना, सदा धर्म में दृढ़तापूर्वक लगे रहना तथा सम्‍पूर्ण प्राणियों में सभी पूजनीय पुरुषों का यथा योग्‍य पूजन करना- ये मनुष्‍यों के सदुण पुरुष में स्‍वार्थ त्‍याग के बिना नहीं रह पाते हैं। झूठ बोलना छोड़ दे, बिना कहे ही दूसरों का प्रिय करे, काम, क्रोध तथा द्वेष से भी कभी धर्म का परित्‍याग न करे। प्रिय वस्‍तु की प्राप्ति होने पर हर्ष से फूल न उठे, अपने मन के विपरीत कोई बात हो जाय तो दु:ख न माने– चिन्तिन न हो, अर्थ संकट आ जाय तो भी मोह के वशीभूत हो घबराये नहीं और किसी भी अवस्‍था में अपना धर्म न छोड़े। यदि भूल से कभी निन्दित कर्म बन जाय, तो फिर दुबारा वैसा काम न करे।  
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अपने मन और बुद्धि से विचार करने पर जो कल्‍याणकारी प्रतीत हो, उसी कार्य में अपने को लगावे।  यदि कोई अपने साथ बुरा बर्ताव करे, तो स्‍वयं भी बदले में उसके साथ बुराई न करे। जो पापी दूसरों का अहित करना चाहता है, वह स्‍वयं नही नष्‍ट हो जाता है।  यह (दूसरों का अहित करना) तो दुराचारी की भाँति दुर्व्‍यसनों में आसक्‍त हुए पापी पुरुषों का ही कार्य है। ‘धर्म कोई चीज नहीं है’ ऐसा मानकर जो शुद्ध आचार-विचार वाले श्रेष्‍ठ पुरुषों की हंसी उड़ाते हैं, वे धर्म पर अश्रद्धा रखने वाले मनुष्‍य निश्‍चय नही नष्‍ट हो जाते हैं। पापी मनुष्‍य लुहार की बड़ी धौंकनी के समान सदा ऊपर से फूलें दिखायी देते हैं (परंतु वास्‍तव में सारहीन होते हैं)।  द्विज श्रेष्‍ठ।  उत्तम पुरुष सर्वत्र विनयशील ही होता है। अंहकारी मुढ़ मनष्‍यों की सोची हुई प्रत्‍येक बात नि:सार होती है। जैसे सूर्य दिन के रुप को प्रकट कर देता है, उसी प्रकार मूर्खों की अन्‍तरात्‍मा ही उनके यथार्थ स्‍वरुप का दर्शन करा देती हैं।
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अपने मन और बुद्धि से विचार करने पर जो कल्‍याणकारी प्रतीत हो, उसी कार्य में अपने को लगावे। यदि कोई अपने साथ बुरा बर्ताव करे, तो स्‍वयं भी बदले में उसके साथ बुराई न करे। जो पापी दूसरों का अहित करना चाहता है, वह स्‍वयं ही नष्‍ट हो जाता है। यह (दूसरों का अहित करना) तो दुराचारी की भाँति दुर्व्‍यसनों में आसक्‍त हुए पापी पुरुषों का ही कार्य है। ‘धर्म कोई चीज नहीं है’ ऐसा मानकर जो शुद्ध आचार-विचार वाले श्रेष्‍ठ पुरुषों की हंसी उड़ाते हैं, वे धर्म पर अश्रद्धा रखने वाले मनुष्‍य निश्‍चय ही नष्‍ट हो जाते हैं। पापी मनुष्‍य लुहार की बड़ी धौंकनी के समान सदा ऊपर से फूले दिखायी देते हैं (परंतु वास्‍तव में सारहीन होते हैं)। द्विजश्रेष्‍ठ! उत्तम पुरुष सर्वत्र विनयशील ही होता है। अंहकारी मूढ़ मनष्‍यों की सोची हुई प्रत्‍येक बात नि:सार होती है। जैसे सूर्य दिन के रूप को प्रकट कर देता है, उसी प्रकार मूर्खों की अन्‍तरात्‍मा ही उनके यथार्थ स्‍वरूप का दर्शन करा देती है।
 
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12:36, 1 मार्च 2018 के समय का अवतरण

saph‍tadhikadvishatatam (207) adhh‍yay: van parv (markanh‍deyasamash‍ya parv)

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mahabharat: van parv: saph‍tadhikadvishatatam adhh‍yay: shlok 33-48 ka hindi anuvad


maian sh‍vayan maans kabhi nahian khata. rritu kal praph‍t hone par hi path‍ni-samagam karata hooan. dvijapravar! maian din mean sada hi upavas aur rat mean bhojan karata hooan. shil se rahit purush bhi kabhi shilavan ho jata hai. praniyoan ki hiansa mean anurakh‍t manushh‍y bhi phir dharmath‍ma ho jata hai. rajaoan ke vh‍yabhichar-dosh se dharm ath‍yanh‍t sankirn ho jata hai aur adharm badh jata hai, isase praja mean varn sankarata a jati hai. us dasha mean bhayankar akriti vale, baune, kub de, mote mash‍tak vale, napuansak, aandhe, bahare aur adhik ooanche netroan vale manushh‍y uth‍pann hote haian. rajaoan ke adharm parayan hone se praja ki sada av‍nati hoti hai. hamare ye raja janak samash‍t praja ko dharmapoorn drishti se hi dekhate haian.

narashreshh‍th! raja janak sada sh‍vadharm mean tath‍par rahane vali samh‍poorn praja par anugrah rakhate hue usaka pita ki bhaanti sada palan karate haian. jo log meri prashansa karate haian aur jo ninh‍da karate haian, un sabako apane sadh‌vyavahar se santushh‍t rakhata hooan. jo raja apane dharm ka palan karate hue jivan nirvah karate haian, dharm mean sanyukh‍t rahate haian, kisi doosare ki koee vash‍tu apane upayog mean nahian late tatha sada apani indriyoan par sanyam rakhate haian, ve hi unnatishil hote haian. apani shakti ke anusar sada doosaroan ko ann dena, doosaroan ke aparadh tatha shit-ushn adi dvanh‍dvoan ko sahan karana, sada dharm mean dridhatapoorvak lage rahana tatha samh‍poorn praniyoan mean sabhi poojaniy purushoan ka yathayogh‍y poojan karana- ye manushh‍yoan ke sadgun purush mean sh‍varthath‍yag ke bina nahian rah pate haian. jhooth bolana chho d de, bina kahe hi doosaroan ka priy kare, kam, krodh tatha dvesh se bhi kabhi dharm ka parith‍yag n kare. priy vash‍tu ki prapti hone par harsh se phool n uthe, apane man ke viparit koee bat ho jaye to du:kh n mane- chintin n ho, arth sankat a jaye to bhi moh ke vashibhoot ho ghabaraye nahian aur kisi bhi avash‍tha mean apana dharm n chho de. yadi bhool se kabhi nindit karm ban jaye, to phir dubara vaisa kam n kare.

apane man aur buddhi se vichar karane par jo kalh‍yanakari pratit ho, usi kary mean apane ko lagave. yadi koee apane sath bura bartav kare, to sh‍vayan bhi badale mean usake sath buraee n kare. jo papi doosaroan ka ahit karana chahata hai, vah sh‍vayan hi nashh‍t ho jata hai. yah (doosaroan ka ahit karana) to durachari ki bhaanti durvh‍yasanoan mean asakh‍t hue papi purushoan ka hi kary hai. ‘dharm koee chij nahian hai’ aisa manakar jo shuddh achar-vichar vale shreshh‍th purushoan ki hansi u date haian, ve dharm par ashraddha rakhane vale manushh‍y nishh‍chay hi nashh‍t ho jate haian. papi manushh‍y luhar ki b di dhauankani ke saman sada oopar se phoole dikhayi dete haian (parantu vash‍tav mean sarahin hote haian). dvijashreshh‍th! uttam purush sarvatr vinayashil hi hota hai. aanhakari moodh manashh‍yoan ki sochi huee prath‍yek bat ni:sar hoti hai. jaise soory din ke roop ko prakat kar deta hai, usi prakar moorkhoan ki anh‍tarath‍ma hi unake yatharth sh‍varoop ka darshan kara deti hai.

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