"महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 2 श्लोक 13-25" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: द्रोण पर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 13-25 का हिन्दी अनुवाद</div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: द्रोण पर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 13-25 का हिन्दी अनुवाद</div>
  
आज यह कौरवदल अपने प्रधान सेनापति के मारे जाने से अनाथ एवं अत्‍यन्‍त पीडित हो रहा है । शत्रुओं ने इसके उत्‍साह को नष्‍ट कर दिया है । इस समय संग्राम भूमिं में मुझे इस कौरव सेना की उसी प्रकार रक्षा करनी है, जैसे महात्‍मा भीष्‍म किया करते थे । ‘मैने यह भार अपने ऊपर ले लिया । जब मैं यह देखता हॅू कि सारा जगत् अनित्‍य है तथा युद्ध कुशल भीष्‍म भी युद्ध में मारे गये हैं, तब ऐसे अवसर पर मैं भय किसलिये करू ? ‘मै उन कुरूप्रवर पाण्‍डवों को अपने सीधे जाने वाले बाणों द्वारा यमलोक पहूँचाकर रणभूमि में विचरूँगा और संसार में उत्‍तम यश का विस्‍तार करके रहूँगा अथवा शत्रुओंके हाथसे मारा जाकर युद्धभूमिमें सदा के लिये सो जाऊँगा । <br />
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‘युधिष्ठिर धैर्य, बुद्धि, सत्‍य और सत्‍वगुण से सम्‍पन्‍न है । भीमसेन का पराक्रम सैकड़ों हाथियों के समान है तथा अर्जुन भी देवराज इन्‍द्रके पुत्र एवं तरुण हैं । अत: पाण्‍डवों की सेनाको सम्‍पूर्ण देवता भी सुगमतापूर्वक नही जीत सकते । ‘जहॉ रणभूमिं में यमराज के समान नकुल और सहदेव विद्ममान है, जहॉ सात्‍यकि तथा देवकीनन्‍दन भगवान श्रीकृष्‍ण हैं, उस सेना में कोई कायर मनुष्‍य प्रवेश कर जाये तो वह मौत के मुख से जीवित नही निकल सकता । मनस्‍वी पुरुष बढ़े हुए तपका तपसे और प्रचण्‍ड बलका बलसे ही निवारण करते हैं। यह सोचकर मेरा मन भी शत्रुओंको रोकने के लिये दृढ़ निश्‍चय किये हुए है तथा अपनी रक्षाके लिये भी पर्वतकी भॉति अविचल भाव से स्थित है। फिर कर्ण अपने सारथि से कहने लगा- सूत ! इस प्रकार मैं युद्ध में जाकर इन शत्रुओं के बढ़ते हुए प्रभाव को नष्‍ट करते हुए आज इन्‍हें जीत लॅूगा।<br />मेरे मित्रों के साथ कोई द्रोह करे, यह मुझे सह्रा नहीं । जो सेना के भाग जाने पर भी साथ देता है, व‍ही मेरा मित्र है । या तो मै सत्‍पुरुषों के करने योग्‍य इस श्रेष्‍ठ कार्य को सम्‍पन्‍न करूँगा अथवा अपने प्राणोंका परित्‍याग करके भीष्‍मजी के ही पथपर चला जाऊँगा । मैं संग्रामभूमि में शत्रुओं के समस्‍त समुदायों का संहार कर डालूँगा अथवा उन्‍होंके हाथ से मारा जाकर वीर-लोक प्राप्‍त कर लूँगा । सूत ! दुर्योधनका पुरुषार्थ प्रतिहत हो गया है । उसके स्‍त्री-बच्‍चे रो-रोकर त्राहि-त्राहि पुकार रहे हैं । ऐसे अवसर पर मुझे क्‍या करना चाहिये, यह मैं जानता हॅू । अत: आज मैं राजा दुर्योधन के शत्रुओं को अवश्‍य जीतूँगा । कौरवोंकी रक्षा और पाण्‍डवों के वधकी इच्‍छा करके मैं प्राणों की भी परवाह न कर इस महाभयंकर युद्ध में समस्‍त शत्रुओंका संहार कर डालूँगा और दुर्योधन को सारा राज्‍य सौप दॅूगा।<br />तुम मेरे शरीर में मणियों तथा रत्‍नों से प्रकाशित सुन्‍दर एवं विचित्र सुवर्णमय कवच बाँध दो और मस्‍तकपर सूर्य के समान तेजस्‍वी शिरस्‍त्राण रख दो । अग्नि, विष तथा सर्पके समान भयंकर बाण एवं धनुष ले आओ । मेरे सेवक बाणोंसे मरे हुए सोलह तरकस रख दें, दिव्‍य धनुष ले आ दें, बहुत से खगों, शक्तियों, भारी गदाओं तथा सुवर्ण जटित विचित्र नालवाले शंख को भी ले आकर रख दें । हाथी को बाँधने के लिये बनी हुई इस विचित्र सुनहरी रस्‍सी को तथा कमल के चिन्‍ह से युक्‍त दिव्‍य एवं अदुत ध्‍वज को स्‍वच्‍छ सुन्‍दर वस्‍त्रों से पोछकर ले आवें । इसके सिवा सुन्‍दर ढंग से गॅुथी हुई विचित्र माला और खील आदि मांगलिक वस्‍तुऍ प्रस्‍तुत करें ।
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*आज यह [[कौरव सेना|कौरवदल]] अपने प्रधान सेनापति के मारे जाने से अनाथ एवं अत्‍यन्‍त पीड़ित हो रहा है। शत्रुओं ने इसके उत्‍साह को नष्‍ट कर दिया है। इस समय संग्राम भूमि में मुझे इस कौरव सेना की उसी प्रकार रक्षा करनी है, जैसे [[भीष्‍म|महात्‍मा भीष्‍म]] किया करते थे। (13)
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*‘मैने यह भार अपने ऊपर ले लिया। जब मैं यह देखता हूँ कि सारा जगत अनित्‍य है तथा युद्ध कुशल भीष्‍म भी युद्ध में मारे गये हैं, तब ऐसे अवसर पर मैं भय किस लिये करूँ? (14)
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*‘मै उन कुरूप्रवर [[पाण्‍डव|पाण्‍डवों]] को अपने सीधे जाने वाले [[बाण अस्त्र|बाणों]] द्वारा [[यमलोक]] पहुँचाकर रणभूमि में विचरूँगा और संसार में उत्‍तम यश का विस्‍तार करके रहूँगा अथवा शत्रुओं के हाथ से मारा जाकर युद्धभूमि में सदा के लिये सो जाऊँगा। (15)
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*‘[[युधिष्ठिर]] धैर्य, बुद्धि, सत्‍य और सत्त्वगुण से सम्‍पन्‍न हैं। [[भीमसेन]] का पराक्रम सैकड़ों हाथियों के समान है तथा [[अर्जुन]] भी [[इन्‍द्र|देवराज इन्‍द्र]] के पुत्र एवं तरुण हैं। अत: पाण्‍डवों की सेना को सम्‍पूर्ण देवता भी सुगमतापूर्वक नहीं जीत सकते। (16)
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*‘जहाँ रणभूमि में [[यमराज]] के समान [[नकुल]] और [[सहदेव]] विद्ममान हैं, जहाँ सात्‍यकि तथा देवकीनन्‍दन [[कृष्‍ण|भगवान श्रीकृष्‍ण]] हैं, उस सेना में कोई कायर मनुष्‍य प्रवेश कर जाये तो वह मौत के मुख से जीवित नहीं निकल सकता। (17)
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*मनस्‍वी पुरुष बढ़े हुए तप का तप से और प्रचण्‍ड बल का बल से ही निवारण करते हैं। यह सोचकर मेरा मन भी शत्रुओं को रोकने के लिये दृढ़ निश्‍चय किये हुए है तथा अपनी रक्षाके लिये भी पर्वत की भाँति अविचल भाव से स्थित है। (18)
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*फिर [[कर्ण]] अपने सारथि से कहने लगा- सूत ! इस प्रकार मैं युद्ध में जाकर इन शत्रुओं के बढ़ते हुए प्रभाव को नष्‍ट करते हुए आज इन्‍हें जीत लूँगा। मेरे मित्रों के साथ कोई द्रोह करे, यह मुझे सह्य नहीं। जो सेना के भाग जाने पर भी साथ देता है, व‍ही मित्र है। (19)
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*या तो मैं सत्‍पुरुषों के करने योग्‍य इस श्रेष्‍ठ कार्य को सम्‍पन्‍न करूँगा अथवा अपने प्राणों का परित्‍याग करके [[भीष्‍म|भीष्‍मजी]] के ही पथ पर चला जाऊँगा। मैं संग्राम भूमि में शत्रुओं के समस्‍त समुदायों का संहार कर डालूँगा अथवा उन्‍हीं के हाथ से मारा जाकर वीर-लोक प्राप्‍त कर लूँगा। (20)
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*सूत! [[दुर्योधन]] का पुरुषार्थ प्रतिहत हो गया है। उसके स्‍त्री-बच्‍चे रो-रोकर त्राहि-त्राहि पुकार रहे हैं। ऐसे अवसर पर मुझे क्‍या करना चाहिये, यह मैं जानता हूँ। अत: आज मैं राजा दुर्योधन के शत्रुओं को अवश्‍य जीतूँगा। (21)
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*[[कौरव|कौरवों]] की रक्षा और [[पाण्‍डव|पाण्‍डवों]] के वध की इच्‍छा करके मैं प्राणों की भी परवाह न कर इस महाभयंकर युद्ध में समस्‍त शत्रुओं का संहार कर डालूँगा और दुर्योधन को सारा राज्‍य सौंप दूँगा। (22)
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*तुम मेरे शरीर में मणियों तथा रत्‍नों से प्रकाशित सुन्‍दर एवं विचित्र सुवर्णमय कवच बाँध दो और मस्‍तक पर सूर्य के समान तेजस्‍वी शिरस्‍त्राण रख दो। अग्नि, विष तथा सर्प के समान भयंकर [[बाण अस्त्र|बाण]] एवं धनुष ले आओ। (23)
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*मेरे सेवक बाणों से भरे हुए सोलह तरकस रख दें, दिव्‍य धनुष ले आ दें, बहुत- से खगों, शक्तियों, भारी गदाओं तथा सुवर्ण जटित विचित्र नाल वाले शंख को भी ले आकर रख दें। (24)
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*हाथी को बाँधने के लिये बनी हुई इस विचित्र सुनहरी रस्‍सी को तथा कमल के चिह्न से युक्‍त दिव्‍य एवं अद्भुत ध्‍वज को स्‍वच्‍छ सुन्‍दर वस्‍त्रों से पोंछकर ले आवें। इसके सिवा सुन्‍दर ढंग से गुँथी हुई विचित्र माला और खील आदि मांगलिक वस्‍तुएँ प्रस्‍तुत करें। (25)
  
 
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13:42, 23 अप्रॅल 2016 का अवतरण

dvitiy (2) adhyay: dron parv ( dronabhishek parv)

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mahabharat: dron parv: dvitiy adhyay: shlok 13-25 ka hindi anuvad


  • aj yah kauravadal apane pradhan senapati ke mare jane se anath evan ath‍yanh‍t pi dit ho raha hai. shatruoan ne isake uth‍sah ko nashh‍t kar diya hai. is samay sangram bhoomi mean mujhe is kaurav sena ki usi prakar raksha karani hai, jaise mahath‍ma bhishh‍m kiya karate the. (13)
  • ‘maine yah bhar apane oopar le liya. jab maian yah dekhata hooan ki sara jagat anith‍y hai tatha yuddh kushal bhishh‍m bhi yuddh mean mare gaye haian, tab aise avasar par maian bhay kis liye karooan? (14)
  • ‘mai un kuroopravar panh‍davoan ko apane sidhe jane vale banoan dvara yamalok pahuanchakar ranabhoomi mean vicharooanga aur sansar mean uth‍tam yash ka vish‍tar karake rahooanga athava shatruoan ke hath se mara jakar yuddhabhoomi mean sada ke liye so jaooanga. (15)
  • yudhishthir dhairy, buddhi, sath‍y aur sattvagun se samh‍panh‍n haian. bhimasen ka parakram saik doan hathiyoan ke saman hai tatha arjun bhi devaraj inh‍dr ke putr evan tarun haian. at: panh‍davoan ki sena ko samh‍poorn devata bhi sugamatapoorvak nahian jit sakate. (16)
  • ‘jahaan ranabhoomi mean yamaraj ke saman nakul aur sahadev vidmaman haian, jahaan sath‍yaki tatha devakinanh‍dan bhagavan shrikrishh‍n haian, us sena mean koee kayar manushh‍y pravesh kar jaye to vah maut ke mukh se jivit nahian nikal sakata. (17)
  • manash‍vi purush badhe hue tap ka tap se aur prachanh‍d bal ka bal se hi nivaran karate haian. yah sochakar mera man bhi shatruoan ko rokane ke liye dridh nishh‍chay kiye hue hai tatha apani rakshake liye bhi parvat ki bhaanti avichal bhav se sthit hai. (18)
  • phir karn apane sarathi se kahane laga- soot ! is prakar maian yuddh mean jakar in shatruoan ke badhate hue prabhav ko nashh‍t karate hue aj inh‍hean jit looanga. mere mitroan ke sath koee droh kare, yah mujhe sahy nahian. jo sena ke bhag jane par bhi sath deta hai, v‍hi mitr hai. (19)
  • ya to maian sath‍purushoan ke karane yogh‍y is shreshh‍th kary ko samh‍panh‍n karooanga athava apane pranoan ka parith‍yag karake bhishh‍maji ke hi path par chala jaooanga. maian sangram bhoomi mean shatruoan ke samash‍t samudayoan ka sanhar kar dalooanga athava unh‍hian ke hath se mara jakar vir-lok praph‍t kar looanga. (20)
  • soot! duryodhan ka purusharth pratihat ho gaya hai. usake sh‍tri-bachh‍che ro-rokar trahi-trahi pukar rahe haian. aise avasar par mujhe kh‍ya karana chahiye, yah maian janata hooan. at: aj maian raja duryodhan ke shatruoan ko avashh‍y jitooanga. (21)
  • kauravoan ki raksha aur panh‍davoan ke vadh ki ichh‍chha karake maian pranoan ki bhi paravah n kar is mahabhayankar yuddh mean samash‍t shatruoan ka sanhar kar dalooanga aur duryodhan ko sara rajh‍y sauanp dooanga. (22)
  • tum mere sharir mean maniyoan tatha rath‍noan se prakashit sunh‍dar evan vichitr suvarnamay kavach baandh do aur mash‍tak par soory ke saman tejash‍vi shirash‍tran rakh do. agni, vish tatha sarp ke saman bhayankar ban evan dhanush le ao. (23)
  • mere sevak banoan se bhare hue solah tarakas rakh dean, divh‍y dhanush le a dean, bahut- se khagoan, shaktiyoan, bhari gadaoan tatha suvarn jatit vichitr nal vale shankh ko bhi le akar rakh dean. (24)
  • hathi ko baandhane ke liye bani huee is vichitr sunahari rash‍si ko tatha kamal ke chihn se yukh‍t divh‍y evan adbhut dhh‍vaj ko sh‍vachh‍chh sunh‍dar vash‍troan se poanchhakar le avean. isake siva sunh‍dar dhang se guanthi huee vichitr mala aur khil adi maangalik vash‍tuean prash‍tut karean. (25)

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