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वैशम्पायनजी कहते हैं– जनमेजय तदंतर [[कुंती]] पुत्र राजा युधिष्ठिर खेद और चिंता से रहित हो पूर्व की ओर मुख करके प्रसन्नता पूर्वक सुवर्ण के सुंदर सिहासन पर विराजमान हुए। तत्पश्चात शत्रुओं का दमन करने वाले साहित्य और भगवान श्रीकृष्ण ने सोने के जगमगाते हुए सुंदर आसन पर उन्हीं की और मुख करके बैठे। राजा [[युधिष्ठिर]] को बीच में करके महा मनस्वी भीमसेन और [[अर्जुन]] दो मनीमय मनोहर पीठो पर विराजमान हुए । एक और हाथी दांत के बने हुए सवर्ण विभूषित शुभ सिंहासन पर नकुल और सहदेव के साथ माता कुंती भी बैठ गई । इसी प्रकार सुधर्मा, विदूर, धौम्य और कुरु राज धृत राष्ट्र अग्नि के समान तेजस्वी पृथक पृथक सिंहासनो पर विराजमान हुए । युयुत्सु, संजय कोर यश्विनी गांधारी- ये सब लोग उधर ही बैठे जिस और राजा [[धृतराष्ट्र]] थे ।धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर ने सिंहासन पर बैठकर श्वेत पुष्प स्वस्तिक, अक्ष्त, भूमि, स्वर्ण, रजत एव मणि का स्पर्श किया। इसके बाद मंत्री सेनापति आदि सभी प्रकृतियों ने पुरोहित को आगे कर के बहुत सी मांगलिक सामग्री साथ लिये धर्मराज युधिष्ठिर का दर्शन किया। मिट्टी, सुवर्ण, तरह तरह के रत्न राज्याभिषेक की सामग्री सब प्रकार के आवश्यक समान सोनी चांदी तांबे और मिट्टी के हुए जल पूर्ण कलश, फूल, लाजा (खील) कुशा, गोरस, समी, पीपल और पलाश की सुविधाएँ मधु, अमृत, गूलर की लकडी के स्त्रुवा तथा स्वर्ण जटिल शंख यह सब वस्तुएं वे संग्रह करके लाए थे। भगवान [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] की आज्ञा से पुरोहित धौम्यजी ने एक वेदी बनायी जो पूर्व और उत्तर दिशा की और निची थी उसे गोबर से लिप कर उसके द्वारा उस पर रेखा की इस प्रकार विधि का संस्कार करके सर्वतो भद्र नामक एक चौकी पर बारम्बार श्वेत वस्त्र बिछा कर उसके ऊपर महात्मा युधिष्ठिर तथा द्रुपद कुमारी श्रीकृष्ण को बिठाया उस चौकी के पाये और बैठने की आधार बहुत मजबूत थे स्वर्ण जटित होने के कारण आसन प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहा था<br /> | वैशम्पायनजी कहते हैं– जनमेजय तदंतर [[कुंती]] पुत्र राजा युधिष्ठिर खेद और चिंता से रहित हो पूर्व की ओर मुख करके प्रसन्नता पूर्वक सुवर्ण के सुंदर सिहासन पर विराजमान हुए। तत्पश्चात शत्रुओं का दमन करने वाले साहित्य और भगवान श्रीकृष्ण ने सोने के जगमगाते हुए सुंदर आसन पर उन्हीं की और मुख करके बैठे। राजा [[युधिष्ठिर]] को बीच में करके महा मनस्वी भीमसेन और [[अर्जुन]] दो मनीमय मनोहर पीठो पर विराजमान हुए । एक और हाथी दांत के बने हुए सवर्ण विभूषित शुभ सिंहासन पर नकुल और सहदेव के साथ माता कुंती भी बैठ गई । इसी प्रकार सुधर्मा, विदूर, धौम्य और कुरु राज धृत राष्ट्र अग्नि के समान तेजस्वी पृथक पृथक सिंहासनो पर विराजमान हुए । युयुत्सु, संजय कोर यश्विनी गांधारी- ये सब लोग उधर ही बैठे जिस और राजा [[धृतराष्ट्र]] थे ।धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर ने सिंहासन पर बैठकर श्वेत पुष्प स्वस्तिक, अक्ष्त, भूमि, स्वर्ण, रजत एव मणि का स्पर्श किया। इसके बाद मंत्री सेनापति आदि सभी प्रकृतियों ने पुरोहित को आगे कर के बहुत सी मांगलिक सामग्री साथ लिये धर्मराज युधिष्ठिर का दर्शन किया। मिट्टी, सुवर्ण, तरह तरह के रत्न राज्याभिषेक की सामग्री सब प्रकार के आवश्यक समान सोनी चांदी तांबे और मिट्टी के हुए जल पूर्ण कलश, फूल, लाजा (खील) कुशा, गोरस, समी, पीपल और पलाश की सुविधाएँ मधु, अमृत, गूलर की लकडी के स्त्रुवा तथा स्वर्ण जटिल शंख यह सब वस्तुएं वे संग्रह करके लाए थे। भगवान [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] की आज्ञा से पुरोहित धौम्यजी ने एक वेदी बनायी जो पूर्व और उत्तर दिशा की और निची थी उसे गोबर से लिप कर उसके द्वारा उस पर रेखा की इस प्रकार विधि का संस्कार करके सर्वतो भद्र नामक एक चौकी पर बारम्बार श्वेत वस्त्र बिछा कर उसके ऊपर महात्मा युधिष्ठिर तथा द्रुपद कुमारी श्रीकृष्ण को बिठाया उस चौकी के पाये और बैठने की आधार बहुत मजबूत थे स्वर्ण जटित होने के कारण आसन प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहा था<br /> | ||
बुद्धिमान पुरोहित ने वेदी पर अग्नि को स्थापित करके उसमें विधि और मंत्र के साथ आहुती दी। तत्पश्चात दशार्हवंशी श्रीकृष्ण ने उठकर जिसकी पूजा की गई थी वह पंच जन्य शंख हाथों में ले उसके जल से पृथ्वीपति कुंती पुत्र युधिष्ठिर के अभिषेक किया फिर राजा धृतराष्ट्र तथा प्रकृति वर्ग के अन्य सब लोगों ने अभिषेक का कार्य संपन्न किया। श्रीकृष्ण की आज्ञा से पांच्यजन्य शंख द्वारा अभिषेक हो जाने पर उसे भाइयों सहित राजा युधिष्ठिर का मुख कितना सुंदर दिखाई देने लगा मानो नेत्रों से अमृत की वर्षा हो रही हो। तदन्तर वहां बाजा बजाने वाले लोग प्रणव आनक तथा दुन्दु भिनि की ध्वनि करने लगे धर्मराज युधिष्ठिर ने धर्मानुसार स्वागत सत्कार स्वीकार किया। बहुत दक्षिणा देने वाले राजा युधिष्ठिर ने वेदांत अध्ययन से संपन्न तथा धैर्य और शील से संयुक्त ब्रह्ममणे द्वारा स्वस्ति वाचन करा कर उन का विधिपूर्वक पूजन किया और उन्हें एक हजार अशर्फियां दान की । <br /> | बुद्धिमान पुरोहित ने वेदी पर अग्नि को स्थापित करके उसमें विधि और मंत्र के साथ आहुती दी। तत्पश्चात दशार्हवंशी श्रीकृष्ण ने उठकर जिसकी पूजा की गई थी वह पंच जन्य शंख हाथों में ले उसके जल से पृथ्वीपति कुंती पुत्र युधिष्ठिर के अभिषेक किया फिर राजा धृतराष्ट्र तथा प्रकृति वर्ग के अन्य सब लोगों ने अभिषेक का कार्य संपन्न किया। श्रीकृष्ण की आज्ञा से पांच्यजन्य शंख द्वारा अभिषेक हो जाने पर उसे भाइयों सहित राजा युधिष्ठिर का मुख कितना सुंदर दिखाई देने लगा मानो नेत्रों से अमृत की वर्षा हो रही हो। तदन्तर वहां बाजा बजाने वाले लोग प्रणव आनक तथा दुन्दु भिनि की ध्वनि करने लगे धर्मराज युधिष्ठिर ने धर्मानुसार स्वागत सत्कार स्वीकार किया। बहुत दक्षिणा देने वाले राजा युधिष्ठिर ने वेदांत अध्ययन से संपन्न तथा धैर्य और शील से संयुक्त ब्रह्ममणे द्वारा स्वस्ति वाचन करा कर उन का विधिपूर्वक पूजन किया और उन्हें एक हजार अशर्फियां दान की । <br /> | ||
− | राजन इससे प्रसन्न होकर उन | + | राजन इससे प्रसन्न होकर उन ब्राह्मणों ने उनके कल्याण का आशीर्वाद दिया और जय जयकार की। वे सभी ब्राह्मण हंस के समान गंभीर स्वर में बोलते हुए राजा युधिष्ठिर की इस प्रकार प्रशंसा करने लगे।पांडूनंदन महाबाहु युधिष्ठिर तुम्हारी विजय हुई ये बड़े भाग्य की बात है महातेजस्वी नरेश तुमने पराक्रम से अपना धर्मानुकूल राजी कर लिया ये सभी सौभाग्य का सूचक है । गाण्डीवधारी अर्जुन पांडुपुत्र भीमसेन तुम और माद्रीपुत्र पांडुकुमार नकुल- सहदेव ये सभी शत्रुओं पर विजय पा कर इस वीर विनाशक संग्राम से कुशल पूर्वक बच्चों के महान संत आगे की बात समझ लेनी चाहिए भारत अब आगे जो कार्य करने हैं उन सबको शीघ्र पूर्ण कीजिए। भारतनंदन तत्पश्चात समागत सज्जनों ने धर्मराज युधिष्ठिर का पुन सत्कार किया फिर उन्होंने के सुहृदों के साथ अपने विशाल राज्य का भार हाथो में ले लिया । |
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01:03, 25 मार्च 2017 का अवतरण
chathvariansh (40) adhyay: shanti parv (rajadharmanushasan parv)
mahabharat: shanti parv: chathvariansh adhyay: shlok 1-24 ka hindi anuvad
yudhishthir ka rajy abhishek vaishamhpayanaji kahate haian– janamejay tadantar kuanti putr raja yudhishthir khed aur chianta se rahit ho poorv ki or mukh karake prasanhnata poorvak suvarn ke suandar sihasan par virajaman hue. tatpashchat shatruoan ka daman karane vale sahithy aur bhagavan shrikrishn ne sone ke jagamagate hue suandar asan par unhhian ki aur mukh karake baithe. raja yudhishthir ko bich mean karake maha manasvi bhimasen aur arjun do manimay manohar pitho par virajaman hue . ek aur hathi daant ke bane hue savarn vibhooshit shubh sianhasan par nakul aur sahadev ke sath mata kuanti bhi baith gee . isi prakar sudharma, vidoor, dhaumhy aur kuru raj dhrit rashtr agni ke saman tejasvi prithak prithak sianhasano par virajaman hue . yuyuthsu, sanjay kor yashvini gaandhari- ye sab log udhar hi baithe jis aur raja dhritarashtr the .dharmatma raja yudhishthir ne sianhasan par baithakar shvet pushp svastik, akshht, bhoomi, svarn, rajat ev mani ka sparsh kiya. isake bad mantri senapati adi sabhi prakritiyoan ne purohit ko age kar ke bahut si maangalik samagri sath liye dharmaraj yudhishthir ka darshan kiya. mitti, suvarn, tarah tarah ke rathn rajyabhishek ki samagri sab prakar ke avashhyak saman soni chaandi taanbe aur mitti ke hue jal poorn kalash, phool, laja (khil) kusha, goras, sami, pipal aur palash ki suvidhaean madhu, amrit, goolar ki lakadi ke shtruva tatha svarn jatil shankh yah sab vastuean ve sangrah karake lae the. bhagavan shrikrishn ki ajna se purohit dhaumhyaji ne ek vedi banayi jo poorv aur uttar disha ki aur nichi thi use gobar se lip kar usake dvara us par rekha ki is prakar vidhi ka sanshkar karake sarvato bhadr namak ek chauki par baramhbar shvet vastr bichha kar usake oopar mahatma yudhishthir tatha drupad kumari shrikrishn ko bithaya us chauki ke paye aur baithane ki adhar bahut majaboot the svarn jatit hone ke karan asan prajhvalit agni ke saman prakashit ho raha tha |
tika tippani aur sandarbh
sanbandhit lekh
varnamala kramanusar lekh khoj