"महाभारत वन पर्व अध्याय 188 श्लोक 69-93" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: अष्टाशीत्यधिकशततम अध्‍याय:  श्लोक 69-93 का हिन्दी अनुवाद</div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: अष्टाशीत्यधिकशततम अध्‍याय:  श्लोक 69-93 का हिन्दी अनुवाद</div>
  
भारत! इसके बाद 'संवर्तक' नामकी प्रलयकालीन अग्नि वायुके साथ उन सम्पूर्ण लोकोंमें फैल जाती हैं, जहांका जल पहले सात सूर्योंद्वारा सोख लिया गया हैं। तत्पश्चात् पृथ्वीका भेदन कर वह अग्नि रसातलतक पहुँच जाती है तथा देवता, दानव और यक्षोंके लिये महान् भय उपस्थित कर देती हैं। राजन्! वह नागलोकको जलाती हुई इस पृथ्वीके नीचे जो कुछ भी हैं, उस सबको क्षणभरमें नष्ट कर देती हैं। इसके बाद वह अमंगलकारी प्रचण्ड वायु और वह संवर्तक अग्नि बाईस योजन तकके लोगोंके भस्म कर ड़ालती हैं। इस प्रकार सर्वत्र फैली हुई वह प्रज्वलित अग्नि देवता, असुर, गन्धर्व, यक्ष, नाग तथा राक्षसोंसहित सम्पूर्ण विश्वको भस्म कर ड़ालती हैं। इसके बाद आकाशमें महान् मेघोंकी घोर घटा घिर आती हैं, जो अद्भुत दिखायी देती हैं। उनमेंसे प्रत्ये मेघसमूह हाथियोंके झुंड़की भाँति विशालकाय और श्यामवर्ण तथा बिजलीकी मालाओंसे विभूषित होता है। कुछ बादल नील कमलके समान श्याम और कुछ कुमुद-कुसुमके समान सफेद होते हैं।
 
  
कुछ जलधरोंकी कान्ति केसरोंके समान दिखायी देती है। कुछ मेघ हल्दीके सदृश पीले और कुछ कारण्डव पक्षीके समान दृष्टिगोचर होते हैं। कोई-कोई कमलदलके समान और कुछ हिंगुल जैसे जान पड़ते हैं। कुछ श्रेष्ठ नगरोंके समान, कुछ हाथियोंके झुंड़-जैसे कुछ काजलके रंगवाले और कुछ मगरोंकी सी आकृतिवाले होते हैं। वे सभी बादल विद्युतन्मालाओंसे अलंकृत होकर घिर आते हैं। महाराज! भयंकर गर्जना करनेके कारण उनका स्वरूप बड़ा भयानक पड़ता है। धीरे-धीरे वे सभी जलधर समूचे आकाशमण्डलको ढक लेते हैं। महाराज! उनके वर्षा करनेपर पर्वत, वन और खानोंसहित यह सारी पृथ्वी अगाध जलराशिमें डूबकर सब ओरसे भर जाती हैं।  
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भारत! इसके बाद 'संवर्तक' नाम की प्रलयकालीन अग्नि वायु के साथ उन सम्पूर्ण लोकों में फैल जाती है, जहां का जल पहले सात सूर्यों द्वारा सोख लिया गया है। तत्पश्चात् पृथ्वी का भेदन कर वह अग्नि रसातल तक पहुँच जाती है तथा [[देवता]], दानव और यक्षों के लिये महान् भय उपस्थित कर देती है। राजन्! वह नागलोक को जलाती हुई इस पृथ्वी के नीचे जो कुछ भी है, उस सबको क्षणभर में नष्ट कर देती है। इसके बाद वह अमंगलकारी प्रचण्ड वायु और वह संवर्तक अग्नि बाईस योजन तक के लोगों को भस्म कर डालती है। इस प्रकार सर्वत्र फैली हुई वह प्रज्वलित अग्नि देवता, असुर, [[गन्धर्व]], यक्ष, नाग तथा राक्षसों सहित सम्पूर्ण विश्व को भस्म कर डालती है। इसके बाद आकाश में महान् मेघों की घोर घटा घिर आती है, जो अद्भुत दिखायी देती है। उनमें से प्रत्येक मेघसमूह हाथियों के झुंड की भाँति विशालकाय और श्यामवर्ण तथा बिजली की मालाओं से विभूषित होता है। कुछ बादल नीलकमल के समान श्याम और कुछ कुमुद-कुसुम के समान सफेद होते हैं।
  
पुरुषरत्न! तदनन्तर विधातासे प्रेरित हो गर्जन-तर्जन करने वाले वे भयंकर मेघ शीघ्र सब ओर वर्षा करके सबको जलसे आप्लावित कर देते हैं। महान् जल-समूहकी वर्षा करके वसुन्धराको जलमें डुबोनेवाले वे समस्त मेघ उस अत्यन्त घोर, अमंगलकारी और भयानक अग्निको बुझा देते हैं। तदनन्तर प्रलयकालके वे पयोधर महात्मा ब्रह्माजीकी प्रेरणा पाकर पृथ्वीको परिपूर्ण करनेके लिये बारह वर्षोंतक धारावाहिक वृष्टि करते हैं। भारत! तदनन्तर समुद्र अपनी सीमाको लांघ जाता हैं, पर्वत फट जाते और पृथ्वी पानीमें डूब जाती हैं। तत्पश्चात् समस्त आकाशको घेरकर सब ओर फैले हुए वे मेघ वायुके प्रचण्ड वेगसे छिन्न-भिन्न होकर सहसा अदृश्य हो जाते हैं। नरेश्वर! इसके बाद कमलमें निवास करने वाले आदिदेव स्वयं ब्रह्माजी उस भयंकर वायुको पीकर सो जाते हैं।
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कुछ जलधरों की कान्ति केसरों के समान दिखायी देती है। कुछ मेघ हल्दी के सदृश पीले और कुछ कारण्डव पक्षी के समान दृष्टिगोचर होते हैं। कोई-कोई कमलदल के समान और कुछ हिंगुल जैसे जान पड़ते हैं। कुछ श्रेष्ठ नगरों के समान, कुछ हाथियों के झुंड-जैसे कुछ काजल के रंग वाले और कुछ मगरों की सी आकृति वाले होते हैं। वे सभी बादल विद्युन्मालाओं से अलंकृत होकर घिर आते हैं। महाराज! भयंकर गर्जना करने के कारण उनका स्वरूप बड़ा भयानक जान पड़ता है। धीरे-धीरे वे सभी जलधर समूचे आकाशमण्डल को ढक लेते हैं। महाराज! उनके वर्षा करने पर पर्वत, वन और खानों सहित यह सारी पृथ्वी अगाध जलराशि में डूबकर सब ओर से भर जाती है।
  
इस प्रकार चराचर प्राणियों, देवताओं तथा असुर आदिके नष्ट हो जानेपर यक्ष, राक्षस, मनुष्य, हिंसक जीव, वृक्ष तथा अन्तरिक्षसे शून्य उस घोर एकार्णवमय जगत् में मैं अकेला ही इधर-उधर मारा-मारा फिरता हूँ। नृपश्रेष्ठ! एकार्णवके उस भयंकर जलमें विचरते हुए जब मैंने किसी भी प्राणीको नहीं देखा, तब मुझे बड़ी व्याकुलता हुई। नरेश्वर! उस समय आलस्यशून्य होकर सुदीर्घकाल तक तैरता हुआ मैं दूर जाकर बहुत थक गया। परंतु कहीं भी मुझे कोई आश्रम नहीं मिला। राजन्! तदनन्तर एक दिन एकार्णवकी उस अगाध जलराशिमें मैंने एक बहुत विशाल बरगदका वृक्ष देखा। नराधिप! उस वृक्षकी चौड़ी शाखापर एक पलंग था, जिसके उपर दिव्य बिछौने बिछे हुए थे। महाराज! उस पलंगपर एक सुन्दर बालक बैठा दिखायी दिया, जिसका मुख कमलके समान कमनीय शोभा धारण करने वाला तथा चन्द्रमाके समान नेत्रोंको आनन्द देने वाला था। उसके नेत्र प्रफुल्ल पद्यदलके समान विशाल थे। पृथ्वीनाथ! उसे देखकर मुझे बड़ा विस्मय हुआ। मैं सोचने लगा-'सारे संसारके नष्ट हो जानेपर भी यह बालक यहाँ सो रहा हूँ।
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पुरुषरत्न! तदनन्तर विधाता से प्रेरित हो गर्जन-तर्जन करने वाले वे भयंकर मेघ शीघ्र सब ओर वर्षा करके सबको जल से आप्लावित कर देते हैं। महान् जल-समूह की वर्षा करके वसुन्धरा को जल में डुबोने वाले वे समस्त मेघ उस अत्यन्त घोर, अमंगलकारी और भयानक अग्नि को बुझा देते हैं। तदनन्तर प्रलयकाल के वे पयोधर महात्मा ब्रह्माजी की प्रेरणा पाकर पृथ्वी को परिपूर्ण करने के लिये बारह वर्षों तक धारावाहिक वृष्टि करते हैं। भारत! तदनन्तर समुद्र अपनी सीमा को लांघ जाता है, पर्वत फट जाते और पृथ्वी पानी में डूब जाती है। तत्पश्चात् समस्त आकाश को घेरकर सब ओर फैले हुए वे मेघ वायु के प्रचण्ड वेग से छिन्न-भिन्न होकर सहसा अदृश्य हो जाते हैं। नरेश्वर! इसके बाद कमल में निवास करने वाले आदिदेव स्वयं ब्रह्माजी उस भयंकर वायु को पीकर सो जाते हैं। इस प्रकार चराचर प्राणियों, देवताओं तथा असुर आदि के नष्ट हो जाने पर यक्ष, राक्षस, मनुष्य, हिंसक जीव, वृक्ष तथा अन्तरिक्ष से शून्य उस घोर एकार्णवमय जगत् में मैं अकेला ही इधर-उधर मारा-मारा फिरता हूँ।
  
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नृपश्रेष्ठ! एकार्णव के उस भयंकर जल में विचरते हुए जब मैंने किसी भी प्राणी को नहीं देखा, तब मुझे बड़ी व्याकुलता हुई। नरेश्वर! उस समय आलस्यशून्य होकर सुदीर्घ काल तक तैरता हुआ मैं दूर जाकर बहुत थक गया। परंतु कहीं भी मुझे कोई आश्रम नहीं मिला। राजन्! तदनन्तर एक दिन एकार्णव की उस अगाध जलराशि में मैंने एक बहुत विशाल बरगद का वृक्ष देखा। नराधिप! उस वृक्ष की चौड़ी शाखा पर एक पलंग था, जिसके ऊपर दिव्य बिछौने बिछे हुए थे। महाराज! उस पलंग पर एक सुन्दर बालक बैठा दिखायी दिया, जिसका मुख कमल के समान कमनीय शोभा धारण करने वाला तथा चन्द्रमा के समान नेत्रों को आनन्द देने वाला था। उसके नेत्र प्रफुल्ल पद्मदल के समान विशाल थे। पृथ्वीनाथ! उसे देखकर मुझे बड़ा विस्मय हुआ। मैं सोचने लगा- 'सारे संसार के नष्ट हो जाने पर भी यह बालक यहाँ कैसे सो रहा है।'
 
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[[चित्र:Next.png|link=महाभारत वन पर्व अध्याय 188 श्लोक 94-123]]
 
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12:04, 24 फ़रवरी 2018 के समय का अवतरण

ashtashityadhikashatatam (188) adhh‍yay: van parv (markandeyasamasya parv)

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mahabharat: van parv: ashtashityadhikashatatam adhh‍yay: shlok 69-93 ka hindi anuvad


bharat! isake bad 'sanvartak' nam ki pralayakalin agni vayu ke sath un sampoorn lokoan mean phail jati hai, jahaan ka jal pahale sat sooryoan dvara sokh liya gaya hai. tatpashchath prithvi ka bhedan kar vah agni rasatal tak pahuanch jati hai tatha devata, danav aur yakshoan ke liye mahanh bhay upasthit kar deti hai. rajanh! vah nagalok ko jalati huee is prithvi ke niche jo kuchh bhi hai, us sabako kshanabhar mean nasht kar deti hai. isake bad vah amangalakari prachand vayu aur vah sanvartak agni baees yojan tak ke logoan ko bhasm kar dalati hai. is prakar sarvatr phaili huee vah prajvalit agni devata, asur, gandharv, yaksh, nag tatha rakshasoan sahit sampoorn vishv ko bhasm kar dalati hai. isake bad akash mean mahanh meghoan ki ghor ghata ghir ati hai, jo adbhut dikhayi deti hai. unamean se pratyek meghasamooh hathiyoan ke jhuand ki bhaanti vishalakay aur shyamavarn tatha bijali ki malaoan se vibhooshit hota hai. kuchh badal nilakamal ke saman shyam aur kuchh kumud-kusum ke saman saphed hote haian.

kuchh jaladharoan ki kanti kesaroan ke saman dikhayi deti hai. kuchh megh haldi ke sadrish pile aur kuchh karandav pakshi ke saman drishtigochar hote haian. koee-koee kamaladal ke saman aur kuchh hiangul jaise jan p date haian. kuchh shreshth nagaroan ke saman, kuchh hathiyoan ke jhuand-jaise kuchh kajal ke rang vale aur kuchh magaroan ki si akriti vale hote haian. ve sabhi badal vidyunmalaoan se alankrit hokar ghir ate haian. maharaj! bhayankar garjana karane ke karan unaka svaroop b da bhayanak jan p data hai. dhire-dhire ve sabhi jaladhar samooche akashamandal ko dhak lete haian. maharaj! unake varsha karane par parvat, van aur khanoan sahit yah sari prithvi agadh jalarashi mean doobakar sab or se bhar jati hai.

purusharatn! tadanantar vidhata se prerit ho garjan-tarjan karane vale ve bhayankar megh shighr sab or varsha karake sabako jal se aplavit kar dete haian. mahanh jal-samooh ki varsha karake vasundhara ko jal mean dubone vale ve samast megh us atyant ghor, amangalakari aur bhayanak agni ko bujha dete haian. tadanantar pralayakal ke ve payodhar mahatma brahmaji ki prerana pakar prithvi ko paripoorn karane ke liye barah varshoan tak dharavahik vrishti karate haian. bharat! tadanantar samudr apani sima ko laangh jata hai, parvat phat jate aur prithvi pani mean doob jati hai. tatpashchath samast akash ko gherakar sab or phaile hue ve megh vayu ke prachand veg se chhinn-bhinn hokar sahasa adrishy ho jate haian. nareshvar! isake bad kamal mean nivas karane vale adidev svayan brahmaji us bhayankar vayu ko pikar so jate haian. is prakar charachar praniyoan, devataoan tatha asur adi ke nasht ho jane par yaksh, rakshas, manushy, hiansak jiv, vriksh tatha antariksh se shoony us ghor ekarnavamay jagath mean maian akela hi idhar-udhar mara-mara phirata hooan.

nripashreshth! ekarnav ke us bhayankar jal mean vicharate hue jab maianne kisi bhi prani ko nahian dekha, tab mujhe b di vyakulata huee. nareshvar! us samay alasyashoony hokar sudirgh kal tak tairata hua maian door jakar bahut thak gaya. parantu kahian bhi mujhe koee ashram nahian mila. rajanh! tadanantar ek din ekarnav ki us agadh jalarashi mean maianne ek bahut vishal baragad ka vriksh dekha. naradhip! us vriksh ki chau di shakha par ek palang tha, jisake oopar divy bichhaune bichhe hue the. maharaj! us palang par ek sundar balak baitha dikhayi diya, jisaka mukh kamal ke saman kamaniy shobha dharan karane vala tatha chandrama ke saman netroan ko anand dene vala tha. usake netr praphull padmadal ke saman vishal the. prithvinath! use dekhakar mujhe b da vismay hua. maian sochane laga- 'sare sansar ke nasht ho jane par bhi yah balak yahaan kaise so raha hai.'

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