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बंटी कुमार (वार्ता | योगदान) |
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− | ==त्रिंश (30) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)== | + | <div style="width:96%; border:10px double #968A03; background:#F5F2D5; border-radius:10px; padding:10px; margin:5px; box-shadow:#ccc 10px 10px 5px;"> |
+ | <h4 style="text-align:center">त्रिंश (30) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)</h4> | ||
+ | {| width=100% cellspacing="10" style="background:transparent; text-align:justify;" | ||
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+ | [[चित्र:Prev.png|link=महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 30 श्लोक 1-19]] | ||
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिंश अध्याय: श्लोक 20-44 का हिन्दी अनुवाद</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिंश अध्याय: श्लोक 20-44 का हिन्दी अनुवाद</div> | ||
‘आपने मेरे साथ स्वस्थचित्त से यह शर्त की थी के ‘हम दोनों के हृदय में जो भी शुभ या अशुभ का संकल्प हो, उसे हम दोनों एक दूसरे से कह दें।’ परंतु ब्रह्मन् ! आपने अपने उस वचन को मिथ्या कर दिया; इसलिये मैं शाप देने को उद्यत हुआ हूँ। ‘जब आपके मन में पहले इस सुकुमारी कुमारी के प्रति कामभाव का उदय हुआ तो आपने मुझे नहीं बताया; इसलिये यह मैं आपको शाप दे रहा हूँ। ‘आप ब्रह्मचारी, मेरे गुरुजन, तपस्वी और ब्राह्मण हैं तो भी आपने हम लोगों में जो शर्त हुई थी, उसे तोड़ दिया है; इसलिये मैं अत्यन्त कुपित होकर आपको जो शाप दे रहस हूँ उसे सुनिये- ‘प्रभो ! यह सुकुमारी आपकी भार्या होगी , इसमें संशय नहीं है, परंतु विवाह के बाद से ही कन्या तथा अन्य सब लोग आपका रूप ( मुख ) वानर के समान देखने लगेंगे। बंदर जैसा मुँह आपके स्वरूप को छिपा देगा’। | ‘आपने मेरे साथ स्वस्थचित्त से यह शर्त की थी के ‘हम दोनों के हृदय में जो भी शुभ या अशुभ का संकल्प हो, उसे हम दोनों एक दूसरे से कह दें।’ परंतु ब्रह्मन् ! आपने अपने उस वचन को मिथ्या कर दिया; इसलिये मैं शाप देने को उद्यत हुआ हूँ। ‘जब आपके मन में पहले इस सुकुमारी कुमारी के प्रति कामभाव का उदय हुआ तो आपने मुझे नहीं बताया; इसलिये यह मैं आपको शाप दे रहा हूँ। ‘आप ब्रह्मचारी, मेरे गुरुजन, तपस्वी और ब्राह्मण हैं तो भी आपने हम लोगों में जो शर्त हुई थी, उसे तोड़ दिया है; इसलिये मैं अत्यन्त कुपित होकर आपको जो शाप दे रहस हूँ उसे सुनिये- ‘प्रभो ! यह सुकुमारी आपकी भार्या होगी , इसमें संशय नहीं है, परंतु विवाह के बाद से ही कन्या तथा अन्य सब लोग आपका रूप ( मुख ) वानर के समान देखने लगेंगे। बंदर जैसा मुँह आपके स्वरूप को छिपा देगा’। | ||
उस बात को समझकर मामा नारदजी भी कुपित हो उइे और उन्होंने अपने भानजे पर्वत को शाप देते हुए कहा- ‘अरे ! तू तपस्या, ब्रह्मचर्य, सत्य और इन्द्रिय संयम से युक्त एवं धर्मपरायण होने पर भी स्वर्गलोक में नहीं जा सकेगा’। <br /> | उस बात को समझकर मामा नारदजी भी कुपित हो उइे और उन्होंने अपने भानजे पर्वत को शाप देते हुए कहा- ‘अरे ! तू तपस्या, ब्रह्मचर्य, सत्य और इन्द्रिय संयम से युक्त एवं धर्मपरायण होने पर भी स्वर्गलोक में नहीं जा सकेगा’। <br /> | ||
− | इस प्रकार अत्यन्त कुपित हो एक दूसरे को शाप दे वे दोनों क्रोध में भरे हुए दो हाथियों के समान अमर्षपुर्वक प्रतिकूल दिशाओं में चल दिये। भारत ! परम बुद्धिमान् पर्वत अपने तेज से यथोचित सम्मान पाते हुए सारी पृथ्वी पर विचरने लगे। इधर विप्रवर नारजी ने उस अनिन्द्य सुन्दरी सृंजय कुमारी सुकुमारी को धर्म के अनुसार पत्नी रूप में प्राप्त किया। वैवाहिक मन्त्रों का प्रयोग होते ही वह राजकन्या शाप के अनुसार नारद मुनि को वानराकार मुख से युक्त देखने लगी। देवर्षि का मुँह वानर के समान देखकर भी सुकुमारी ने उनकी अवहेलना नहीं की। वह उनके प्रति अपना प्रेम बढ़ाती ही गयी। पति पर स्नेह रखने वाली सुकुमारी अपने स्वामी की सेवा में सदा उपस्थित रहती और दूसरे किसी पुरुष का, वह यक्ष, मुनि अथवा देवता ही क्यों न हो, मन के द्वारा भी पति रूप से चिनतन नहीं करती थी। तदनन्तर किसी समय भगवान् पर्वत घूमते हुए किसी एकान्त वन में आ गये। वहाँ उन्होंने नारदजी को देखा।। जब पर्वत ने नारदजी को प्रणाम करके कहा- ‘प्रभो ! आप मुझे स्वर्ग में जाने के लिये आज्ञा देने की कृपा करें’। नारदजी ने देखा कि पर्वत दीनभाव से हाथ जोड़कर मेरे पास खड़ा है; फिर तो वे स्वयं भी अत्यन्त दीन होकर उनसे बोले- | + | इस प्रकार अत्यन्त कुपित हो एक दूसरे को शाप दे वे दोनों क्रोध में भरे हुए दो हाथियों के समान अमर्षपुर्वक प्रतिकूल दिशाओं में चल दिये। भारत ! परम बुद्धिमान् पर्वत अपने तेज से यथोचित सम्मान पाते हुए सारी पृथ्वी पर विचरने लगे। इधर विप्रवर नारजी ने उस अनिन्द्य सुन्दरी सृंजय कुमारी सुकुमारी को धर्म के अनुसार पत्नी रूप में प्राप्त किया। वैवाहिक मन्त्रों का प्रयोग होते ही वह राजकन्या शाप के अनुसार नारद मुनि को वानराकार मुख से युक्त देखने लगी। देवर्षि का मुँह वानर के समान देखकर भी सुकुमारी ने उनकी अवहेलना नहीं की। वह उनके प्रति अपना प्रेम बढ़ाती ही गयी। पति पर स्नेह रखने वाली सुकुमारी अपने स्वामी की सेवा में सदा उपस्थित रहती और दूसरे किसी पुरुष का, वह यक्ष, मुनि अथवा देवता ही क्यों न हो, मन के द्वारा भी पति रूप से चिनतन नहीं करती थी। तदनन्तर किसी समय भगवान् पर्वत घूमते हुए किसी एकान्त वन में आ गये। वहाँ उन्होंने नारदजी को देखा।। जब पर्वत ने नारदजी को प्रणाम करके कहा- ‘प्रभो ! आप मुझे स्वर्ग में जाने के लिये आज्ञा देने की कृपा करें’। नारदजी ने देखा कि पर्वत दीनभाव से हाथ जोड़कर मेरे पास खड़ा है; फिर तो वे स्वयं भी अत्यन्त दीन होकर उनसे बोले-‘वत्स ! पहले तुमने मुझे यह शाप दिया था यदि ‘तुम वानर हो जाओ।’ तुम्हारे ऐसा कहने के बाद मैंने भी मत्सातावश तुम्हें शाप दे दिया, जिससे आज तक तुम स्वर्ग में नहीं जा सके। यह तुम्हारे योग्य कार्य नहीं था; क्योंकि तुम मेरे पुत्र की जगह पर हो’। इस प्रकार बातचीत करके उन दोनांे ऋषियों ने एक दूसरे के शाप को निवृत्त कर दिया। <br /> |
+ | तब नारदजी को देवता के समान तेजस्वी रूप में देखकर सुकुमारी पराये पति की आशंका से भाग चली। उस सती साध्वी राजकन्या को भागते देख पर्वत ने इससे कहा- ‘देवि ! ये तुम्हारे पति ही हैं। इसमें अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं है’। ‘ये तुम्हारे पति अभेद्य हृदय वाले परम धर्मात्मा प्रभु भगवान् नारद मुनि ही हैं। इस विषय में तुम्हें संदेह नहीं होना चाहिये महातमा पर्वत के बहुत समझाने-बुझाने पर पति के शाप-दोष की बात सुनकर सुकुमारी का मन स्वस्थ हुआ। तत्पश्चात् पर्वतमुनि स्वर्ग में लौट गये और नारदजी सुकुमारी के घर आये। श्रीकृष्ण कहते हैं - नरश्रेष्ठ ! भगवान् नारद ऋषि इन सब घटनाओं के प्रत्यक्षदर्शी हैं। तुम्हारे पूछने पर ये सारी बातें बता देंगे। | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में नारद और पर्वत का उपाख्यान विषयक तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में नारद और पर्वत का उपाख्यान विषयक तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div> | ||
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+ | [[चित्र:Next.png|link=महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 31 श्लोक 1-19]] | ||
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
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15:23, 19 सितम्बर 2015 का अवतरण
triansh (30) adhyay: shanti parv (rajadharmanushasan parv)
mahabharat: shanti parv: triansh adhyay: shlok 20-44 ka hindi anuvad
‘apane mere sath svasthachitt se yah shart ki thi ke ‘ham donoan ke hriday mean jo bhi shubh ya ashubh ka sankalp ho, use ham donoan ek doosare se kah dean.’ parantu brahmanh ! apane apane us vachan ko mithya kar diya; isaliye maian shap dene ko udyat hua hooan. ‘jab apake man mean pahale is sukumari kumari ke prati kamabhav ka uday hua to apane mujhe nahian bataya; isaliye yah maian apako shap de raha hooan. ‘ap brahmachari, mere gurujan, tapasvi aur brahman haian to bhi apane ham logoan mean jo shart huee thi, use to d diya hai; isaliye maian atyant kupit hokar apako jo shap de rahas hooan use suniye- ‘prabho ! yah sukumari apaki bharya hogi , isamean sanshay nahian hai, parantu vivah ke bad se hi kanya tatha any sab log apaka roop ( mukh ) vanar ke saman dekhane lageange. bandar jaisa muanh apake svaroop ko chhipa dega’.
us bat ko samajhakar mama naradaji bhi kupit ho uie aur unhoanne apane bhanaje parvat ko shap dete hue kaha- ‘are ! too tapasya, brahmachary, saty aur indriy sanyam se yukt evan dharmaparayan hone par bhi svargalok mean nahian ja sakega’. is prakar shrimahabharat shantiparv ke antargat rajadharmanushasan parv mean narad aur parvat ka upakhyan vishayak tisavaan adhyay poora hua.
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tika tippani aur sandarbh
sanbandhit lekh
varnamala kramanusar lekh khoj