"गीता अमृत -जोशी गुलाबनारायण पृ. 1077" के अवतरणों में अंतर

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जो सुख मनुष्य देवताओं की पूजा करके प्राप्त करना चाहता है और जिसकी उपलब्धि देवताओं द्वारा होना मानता है उस सुख को “आधिदैविक सुख” कहते हैं। अपनी इच्छाओं, आशाओं व कामनाओं की पूर्ति तथा सिद्धि के लिए जप-तप, यज्ञ-याग, हवन, दान, व्रत, उपवास आदि किए जाते हैं, और इन्द्र, वरुण, रुद्र, विष्णु, शिव, ब्रह्मा, गणेश, भैरव, भवानी, नाग, यक्ष, राक्ष आदि की अर्चना व पूजा की जाती हैं; प्रत्येक व्यक्ति प्रकृति जन्य स्वाभाविक गुणों के अनुसार आचरण करता है (अ. 13 श्लोक 11-21) और इस देह-स्वभाव के अनुसार ही मनुष्य की श्रद्धा भी सत्त्व-रज-तम गुणों के अनुसार त्रिधा व भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है; और जिस प्रकार बुद्धि के सात्त्विक, राजस और तामस तीन भेद हैं उसी प्रकार श्रद्धा के भी सात्त्विक, राजस और तामस तीन भेद कहे गए हैं (अ. 17 श्लो. 2) जिन लोगों की श्रद्धा सात्त्विक होती है उनकी बुद्धि व मति वैदिक देवताओं की उपासना में होती है; राजसी श्रद्धा वालों की बुद्धि व मति रागात्मक व कामनासक्त होने के कारण भिन्न-भिन्न व अनेक देवताओं तथा यक्ष-राक्षसों की पूजा करने में होती है; और जो लोग तामसी श्रद्धा वाले होते हैं वह भूत-पिशाच आदि की उपासना करते हैं; (अ. 17 श्लो. 3-6)इसी श्रद्धा व बुद्धि के अनुसार जो भी जप, तप, यज्ञ, दान, व्रत, उपवास आदि किसी कामना, इच्छा, फलाशा, स्वार्थ-सिद्धि, निज सत्कार हित या किसी अन्य प्रयोजन से किए जाते हैं वह सब पाखण्डमय कहे गए हैं; (अ. 17 श्लो. 5।)
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जो सुख मनुष्य [[देवता|देवताओं]] की [[पूजा]] करके प्राप्त करना चाहता है और जिसकी उपलब्धि देवताओं द्वारा होना मानता है उस सुख को “आधिदैविक सुख” कहते हैं। अपनी इच्छाओं, आशाओं व कामनाओं की पूर्ति तथा [[सिद्धि]] के लिए जप-तप, यज्ञ-याग, हवन, दान, व्रत, उपवास आदि किए जाते हैं, और [[इन्द्र]], [[वरुण|वरुण]], [[रुद्र]], [[विष्णु]], शिव, ब्रह्मा, गणेश, भैरव, भवानी, नाग, यक्ष, राक्ष आदि की अर्चना व पूजा की जाती हैं; प्रत्येक व्यक्ति प्रकृति जन्य स्वाभाविक गुणों के अनुसार आचरण करता है<ref>अध्याय 13 श्लोक 11-21</ref>और इस देह-स्वभाव के अनुसार ही मनुष्य की [[श्रद्धा]] भी सत्त्व-रज-तम गुणों के अनुसार त्रिधा व भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है; और जिस प्रकार बुद्धि के सात्त्विक, राजस और तामस तीन भेद हैं उसी प्रकार [[श्रद्धा]] के भी सात्त्विक, राजस और तामस तीन भेद कहे गए हैं<ref>अध्याय 17 श्लोक 2</ref> जिन लोगों की श्रद्धा सात्त्विक होती है उनकी बुद्धि व मति वैदिक देवताओं की उपासना में होती है; राजसी श्रद्धा वालों की बुद्धि व मति रागात्मक व कामनासक्त होने के कारण भिन्न-भिन्न व अनेक देवताओं तथा यक्ष-राक्षसों की पूजा करने में होती है; और जो लोग तामसी श्रद्धा वाले होते हैं वह भूत-पिशाच आदि की उपासना करते हैं;<ref>अध्याय 17 श्लोक 3-6)</ref> इसी [[श्रद्धा]] [[बुद्धि]] के अनुसार जो भी जप, तप, यज्ञ, दान, [[व्रत]], उपवास आदि किसी कामना, इच्छा, फलाशा, स्वार्थ-सिद्धि, निज सत्कार हित या किसी अन्य प्रयोजन से किए जाते हैं वह सब पाखण्डमय कहे गए हैं<ref>अध्याय 17 श्लोक 5</ref>।
 
 
गुण-परिणाम-वाद तथा कर्म-विपाक के “कर्मणा बध्यते जन्तुः” सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य के सात्त्विक, राजस तथा तामसी कर्मों के फल संचित होते रहते हैं जो संचित-कर्म कहलाते हैं। इन संचित कर्मों में जिन कर्म-फलों का भोगना आरम्भ हो जाता है उसे ही “प्रारब्ध या अदृष्ट” कहते हैं; और यही संचित प्राक्तन कर्म अर्थात् प्रारब्ध (अदृष्ट) “दैव” कहा जाता है।
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गुण-परिणाम-वाद तथा कर्म-विपाक के “कर्मणा बध्यते जन्तुः” सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य के सात्त्विक, राजस तथा तामसी कर्मों के फल संचित होते रहते हैं जो संचित-कर्म कहलाते हैं। इन संचित कर्मों में जिन कर्म-फलों का भोगना आरम्भ हो जाता है उसे ही “प्रारब्ध या अदृष्ट” कहते हैं; और यही संचित प्राक्तन कर्म अर्थात् प्रारब्ध अदृष्ट “दैव” कहा जाता है।
  
 
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13:17, 25 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण

gita amrit -joshi gulabanarayan

adhyay-18
moksh-sannyas-yog
Prev.png

adhidaivik-sukhah-

jo sukh manushy devataoan ki pooja karake prapt karana chahata hai aur jisaki upalabdhi devataoan dvara hona manata hai us sukh ko “adhidaivik sukh” kahate haian. apani ichchhaoan, ashaoan v kamanaoan ki poorti tatha siddhi ke lie jap-tap, yajn-yag, havan, dan, vrat, upavas adi kie jate haian, aur indr, varun, rudr, vishnu, shiv, brahma, ganesh, bhairav, bhavani, nag, yaksh, raksh adi ki archana v pooja ki jati haian; pratyek vyakti prakriti jany svabhavik gunoan ke anusar acharan karata hai[1]aur is deh-svabhav ke anusar hi manushy ki shraddha bhi sattv-raj-tam gunoan ke anusar tridha v bhinn-bhinn prakar ki hoti hai; aur jis prakar buddhi ke sattvik, rajas aur tamas tin bhed haian usi prakar shraddha ke bhi sattvik, rajas aur tamas tin bhed kahe ge haian[2] jin logoan ki shraddha sattvik hoti hai unaki buddhi v mati vaidik devataoan ki upasana mean hoti hai; rajasi shraddha valoan ki buddhi v mati ragatmak v kamanasakt hone ke karan bhinn-bhinn v anek devataoan tatha yaksh-rakshasoan ki pooja karane mean hoti hai; aur jo log tamasi shraddha vale hote haian vah bhoot-pishach adi ki upasana karate haian;[3] isi shraddha v buddhi ke anusar jo bhi jap, tap, yajn, dan, vrat, upavas adi kisi kamana, ichchha, phalasha, svarth-siddhi, nij satkar hit ya kisi any prayojan se kie jate haian vah sab pakhandamay kahe ge haian[4].

gun-parinam-vad tatha karm-vipak ke “karmana badhyate jantuah” siddhant ke anusar manushy ke sattvik, rajas tatha tamasi karmoan ke phal sanchit hote rahate haian jo sanchit-karm kahalate haian. in sanchit karmoan mean jin karm-phaloan ka bhogana arambh ho jata hai use hi “prarabdh ya adrisht” kahate haian; aur yahi sanchit praktan karm arthath prarabdh adrisht “daiv” kaha jata hai.

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tika tippani aur sandarbh

  1. adhyay 13 shlok 11-21
  2. adhyay 17 shlok 2
  3. adhyay 17 shlok 3-6)
  4. adhyay 17 shlok 5

sanbandhit lekh

varnamala kramanusar lekh khoj

   a    a    i    ee    u    oo    e    ai    o    au    aan    k    kh    g    gh    n    ch    chh    j    jh    n    t    th    d    dh    n    t    th    d    dh    n    p    ph    b    bh    m    y    r    l    v    sh    sh    s    h    ksh    tr    jn    rri    rri    aau    shr    aah